Saturday 2 July 2011

झूले की पेंगे

आज़ यदि बच्चों से पूछा जाये’क्या तुमने पेंगे खाई है?,तो पूछेंगे कि-यह क्या कोई फ़ास्ट फ़ूड का नाम है?,
   सावन-भादों के महीनों में अक्सर शाम होते-होते काले बादल घिर आते थे,अंधेरा छा जाता था,फ़िर टप-टप,बडी-बडी बूंदों का छत पर टप-टप, गिरना और यदि टीन की छ्तों पर टपकी तो बस संगीत की वो स्वर लहरी लय के साथ मुखर हो उठती थी कि आज के बडे- बडे संगीत कार भी वैसी धुन का अविष्कार न कर सकें
   टप- टप , टप -टप , रिम -झिम , रिम - झिम और झूलों  की पेगे बढी तो बढी लगा  कि जिस डाली पर रस्सी बंधी है उसी को न छूले हम , न डर , न आशंका , बस पेंग बढानी है .
  जब उपर से झूले नीचे आते थे तो शरीर मे अजीब सी  गुदगुदाहट होने लगती थी . इधर बारिस की तेजी उधर पेगों की तेजी .  उपर से नीचे तक सरोबार , कभी - कभी तो दातों की कट-कट भी शुरू हो जाती थी
  झूले से उतर कर जब घर की ओर दौडते थे , कपडे भीग कर ऎसे चिपक जाते थे कि उन्हे  उतारना भी मुस्किल हो जाता था. पानी मे भीगने से हाथ पैरो की उगलिया नीली पडने लगती थी
  इस स्वार्गिक अनुभव का पटा क्षेप भी बडा ही स्वादिष्ट , महक भरा व गर्मागरम होता था जब चूल्हे के चारो ओर बैठ कर गर्म-गर्म पकोडे , कचोडी व पुओं का रस्वादन होने लगता था.
   उन दिनो यह रिवाज था इधर बारिश की  झडी लगी उधर घर- घर धधकते चूल्हो पर कडाइयों मे गर्म-गर्म पकोडे , मगोडी , पुए तले जाने लगते थे
  ऎसे मौसम मे बाबूजी कहा करते थे -
                                                      भादों न खाई खीर , सावन न खाए पूआ
                                                      अरे, मन काहे को----- हुआ



                                                                   मन के मन-के   

















2 comments:

  1. बचपन में शरारतें करने का मौका अब के बच्चों को नहीं मिलता...छोटे कन्धों पर बड़ी-बड़ी उम्मीदें लाद दी गयीं हैं...

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  2. आजकल तो वो पेंगे, बड़े बड़े वाटर पार्कों में दिखती है।

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