Monday 14 July 2014

धर्म--झेन के अनुसार




धर्म,अतर्कपूर्ण और अकारण है---
धर्म है,आस्तित्व का विराट आकाश.
तर्क या विचार शक्ति,मनुष्य की एक बहुत छॊटी सी सत्ता है.
धर्म का शुद्धतम रूप है-झेन.
झेन—धर्म को केवल अतर्कपूर्ण ढंग से ही समझा जा सकता है.
गहन सहानुभूति और प्रेम में ही उस तक पहुंचा जा सकता है.
यह हृदय में घटने वाली एक घटना है.
स्वभाव में हो होना ही उसे जानना है और इस बारे में कोई दूसरा जानना नहीं होता.
झेन गुरू—इक्क्यू एक रहस्यदर्शी हैं.वे अपनी बात छोटी-छोटी कविताओं के माध्यम से कहते हैं,जिनका तरीका अप्रतक्षय और सांकेतिक है—जहां तथ्य भी काव्यमय होकर खिल जाते हैं.
आज हमारा जीवन रेखावत हो गया है---सपाट जहां खूबसूरती की गोलाइयां विलुप्त हो गईं हैं,उन गोलाइयों को गढने के लिये हमारे पास भावनाओं,संवेदनाओं,अनुभूतियों की पतली नोंक वाली कलम नहीं है,पूर्णिमा की रात्रि में चांदनी बिखरते पूर्ण चंद्रमा को को देखने वाली नजरें खो गयीं है और ना ही स्वम की आंखों की सुंदरता को देखने की नजरे हमारे पास हैं.
आज का मनुष्य---
वह ना तो कभी हंसा है ना ही रोया है और ना ही वह जानता है बह्ते हुए आंसुओं की सुंदरता को.जी रहा यम्त्रवत.
जेन गुरू इक्क्यू—मन बहुत निर्धन है,मन एक भिखारी है.
हृदय—जीवन की गूढताओं,आस्तित्व की गहराइयों और संसार के रहस्यों को जानने का द्वार है.
केवल तथ्यों के संसार में जीना असंभव है.उसमें जीवन का मूल्य कहां पाओगे—
तब गुलाब का फूल केवल वनस्पतिशास्त्र का एक तथ्य मात्र होगा.
तब प्रेम की कोई चमक नहीं होगी,केवल एक जैविक तथ्य होगा.
तथ्य केवल आवश्यकताएं हैं जो हमेशा अतृप्त हैं---जहां सर्वोच्च आवश्यकता अतृप बनी रहती है—उत्सव,आनंद,समारोह—अधूरे-अधूरे से---
सितारों से सागर को जोडने की जरूरत,चमकती रेत पर प्रेम-गीत की लिखावट,हाथों को जोड कर प्रार्थना के गीत,प्रेम में डूबने की चाहतें,नृत्य को आतुर ठिठके हुए पैर की आतुरता,आंसुओं को गीतों में कहने की व्याकुलता,
सब कुछ अधूरे-अधूरे से रह जाने की कसक.
कुछ क्षण ऐसे होते हैं---जब कुछ बात कहनी होती है लेकि कुछ भी कहा नहीं जा सकता है---जब शब्दों से अधिक बहते हुए आंसू कह देते हैं.
वहां कुछ क्षण ऐसे होते हैं जब सब कुछ उन्मुक्त हास्य कह देता है----जब शब्दों से अधिक मुद्राएं और संकेत कह देते हैं-----
और----शब्दों से अधिक मौन कह देता है.
इसी संदर्भ में ओशो---एक संस्मरण कह रहे हैं—
और कभी-कभी अद्वेत के परमानंद की स्तिथि को छोटे-छोटे शब्दों के द्वारा ही अभिव्यक्त किया जा सकता है.कुछ दिन पूर्व ही मैं सेमुएल को पढ रहा था.वह लिखता है---
----मुझे एक पिता के अपने पांच वर्ष के छोटे बच्चे से जो कई घंटों के लिये जंगल में भटक गया था,सुखद मिलन का दृष्टा बनने का अवसर मिला---ओह! कैसा अद्भुत था वह मिलन.नंगे पैर,फटे चीथडे पहने वह बच्चा जंगल से अपनी पूरी शक्ति से “डेडी-डेडी” चीखते-चिल्लाते दौडा चला आया.और मैने देखा उसके पिता ने निःसंकोच सुबकते हुए बच्चे को अपनी दौनों बांहो में भर लिया और वह परमात्मा के प्रति कृतग्यता व्यक्त करने के लिये कोई भजन बुदबुदाने लगा”
(उपरोक्त खूबसूरत पंक्तियां चुनी गईं—ओशो प्रवचनमाला ’सहज जीवन’में संकलित ’शून्यता का सार’ से)
                                 मन के-मनके

2 comments:

  1. प्रेम और ज्ञान ... दोनों को देखने का ओशो का अंदाज़ अलग ही है सदा से ...
    साधारण बात को साधारण से भी साधारण करके देखना और महसूस करना ही असल ज्ञान है ...

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